न्याय की मंडी: जब फैसला भी सवालों के घेरे में हो
न्यायपालिका पर जनता का भरोसा उसके निष्पक्ष और निडर फैसलों से बनता है, लेकिन जब वही फैसले तर्क और नैतिकता की कसौटी पर विफल होते दिखें, तो सवाल उठना लाज़मी है। हाल ही में दो खबरें सुर्खियों में हैं—एक, जहां कोर्ट के एक फैसले ने बलात्कार की परिभाषा पर बहस छेड़ दी, और दूसरी, जहां एक जज के घर कथित तौर पर बड़ी मात्रा में नकदी मिलने की चर्चा हो रही है।
पहली खबर: जब कानून की परिभाषा हकीकत से टकराई
उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में तीन आरोपियों को राहत देते हुए हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने कहा कि नाबालिग लड़की के स्तन दबाना, उसके कपड़े खोलने की कोशिश करना और उसे खींचकर ले जाने की घटना को “बलात्कार या बलात्कार के प्रयास” की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस फैसले ने एक नई बहस को जन्म दे दिया कि क्या महिला के शरीर के साथ किसी भी प्रकार की जबरदस्ती सिर्फ इसलिए “रेप” नहीं मानी जाएगी क्योंकि उसमें कोई स्पष्ट “यौन संबंध” स्थापित नहीं हुआ?
दूसरी खबर: जब न्याय की कुर्सी पर उठे सवाल
दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर आग लगी, जिसमें कथित रूप से भारी मात्रा में नकदी मिलने की खबरें सामने आईं। हालांकि फायर डिपार्टमेंट की रिपोर्ट में कैश जब्त करने का कोई जिक्र नहीं था, लेकिन मीडिया और राजनीतिक हलकों में इस पर चर्चा तेज़ हो गई। सवाल यह है कि क्या आग महज़ एक संयोग थी, या फिर यह किसी बड़े खेल का हिस्सा थी?
“न्याय” और “अन्याय” के बीच बिकता सच
इन दोनों घटनाओं में एक चीज़ समान है—न्यायपालिका का दोहरा चेहरा। एक ओर, महिला उत्पीड़न से जुड़े गंभीर मामलों में फैसले इतनी ढील देते हैं कि अपराधियों को हिम्मत मिलती है, और दूसरी ओर, जब खुद न्याय के रखवालों पर उंगलियां उठती हैं, तो सच्चाई को राख के नीचे दबाने की कोशिश होती है।
आखिर, यह कैसा न्याय है, जो फैसलों में ढलता है और परिस्थितियों के हिसाब से बदलता है? क्या न्याय अब सिर्फ कानूनी दांव-पेचों का खेल बनकर रह गया है? या फिर वाकई, न्याय और अन्याय दोनों ही बिकने वाली चीजें बन चुके हैं?